मेरी माँ (कविता)

मेरी माँ (कविता)

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मेरी माँ (कविता)

चुपके चुपके मन ही मन में

खुद को रोते देख रहा हूँ

बेबस होके अपनी माँ को

बूढ़ा होता देख रहा हूँ


रचा है बचपन की आँखों में

खिला खिला सा माँ का रूप

जैसे जाड़े के मौसम में

नरम गरम मखमल सी धूप

धीरे धीरे सपनों के इस

रूप को खोते देख रहा हूँ


बेबस होके अपनी माँ को

बूढ़ा होता देख रहा हूँ...


छूट छूट गया है धीरे धीरे

माँ के हाथ का खाना भी

छीन लिया है वक्त ने उसकी

बातों भरा खजाना भी

घर की मालकिन को

घर के कोने में सोते देख रहा हूँ


चुपके चुपके मन ही मन में

खुद को रोते देख रहा हूँ...

बेबस होके अपनी माँ को

बूढ़ा होता देख रहा हूँ...


                               ✍SK Singh "Satya"

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